मिरे वजूद को पामाल करना चाहता है
जो हादसा है मुझी पर गुज़रना चाहता है
वो जुम्बिश अपने लबों को न दे ये बात अलग
अदा अदा से मगर बात करना चाहता है
कमाँ से चाहे न निकले किसी का तीर-ए-नज़र
मगर ये लगता है दिल में उतरना चाहता है
गुमाँ ये होता है तस्वीर देख कर तेरी
कि अक्स से तिरा पैकर उभरना चाहता है
ख़ुशा ये ज़ख़्म ज़हे लज़्ज़त-ए-नमक-पाशी
कुरेद लेता हूँ जब ज़ख़्म भरना चाहता है
ग़रीब को हवस-ए-ज़िंदगी नहीं होती
बस इतना है कि वो इज़्ज़त से मरना चाहता है
मैं ज़िंदगी को लिए फिर रहा हूँ कब से 'वक़ार'
ये बोझ अब मिरे सर से उतरना चाहता है

ग़ज़ल
मिरे वजूद को पामाल करना चाहता है
वक़ार मानवी