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मिरे वहम-ओ-गुमाँ से भी ज़ियादा टूट जाता है | शाही शायरी
mere wahm-o-guman se bhi ziyaada TuT jata hai

ग़ज़ल

मिरे वहम-ओ-गुमाँ से भी ज़ियादा टूट जाता है

सलीम साग़र

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मिरे वहम-ओ-गुमाँ से भी ज़ियादा टूट जाता है
ये दिल अपनी हदों में रह के इतना टूट जाता है

मैं रोऊँ तो दर-ओ-दीवार मुझ पर हँसने लगते हैं
हँसूँ तो मेरे अंदर जाने क्या क्या टूट जाता है

मैं जिस लम्हे की ख़्वाहिश में सफ़र करता हूँ सदियों का
कहीं पाँव-तले आ कर वो लम्हा टूट जाता है

मिरे ख़्वाबों की बस्ती से जनाज़े उठते जाते हैं
मिरी आँखें जिसे छू लें वो सपना टूट जाता है

न जाने कितनी मुद्दत से है दिल में ये अमल जारी
ज़रा सी ठेस लगती है ज़रा सा टूट जाता है

दिल-ए-नादाँ हमारी तो नुमू ही ना-मुकम्मल थी
तो हैरत क्या जो बनते ही इरादा टूट जाता है

मुक़द्दर में मिरे 'सागर' शिकस्त-ओ-रेख़्त इतनी है
मैं जिस को अपना कह दूँ वो सितारा टूट जाता है