मिरे वास्ते जहाँ में कोई दिलकशी नहीं है
कि तिरे बग़ैर जीना कोई ज़िंदगी नहीं है
तिरी ज़ात के अलावा मुझे और चहिए क्या
तू अगर है साथ मेरे मुझे कुछ कमी नहीं है
वो नज़र नज़र नहीं है न हो जिस में अक्स तेरा
कोई दिल है वो भी जिस में ग़म-ए-आशिक़ी नहीं है
कोई वास्ता नहीं है जिसे दर्द-ए-दीगराँ से
वो है आदमी का पैकर मगर आदमी नहीं है
मिरे दोस्तो न देखो मुझे चश्म-ए-ख़शमगीं से
कि रहीन-ए-बादा-नोशी मिरी बे-ख़ुदी नहीं है
मिरे दिल के दाग़ तू ही ज़रा और लौ बढ़ा दे
शब-ए-ग़म है तीरा तीरा कहीं रौशनी नहीं है
मिरी बात सुन के 'अख़्तर' सुनी अन-सुनी न कर दो
ये हदीस-ए-जान-ओ-दिल हे निरी शाइ'री नहीं है
ग़ज़ल
मिरे वास्ते जहाँ में कोई दिलकशी नहीं है
अख़तर मुस्लिमी