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मिरे ठहराव को कुछ और भी वुसअत दी जाए | शाही शायरी
mere Thahrao ko kuchh aur bhi wusat di jae

ग़ज़ल

मिरे ठहराव को कुछ और भी वुसअत दी जाए

सालिम सलीम

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मिरे ठहराव को कुछ और भी वुसअत दी जाए
अब मुझे ख़ुद से निकलने की इजाज़त दी जाए

मौत से मिल लें किसी गोशा-ए-तन्हाई में
ज़िंदगी से जो किसी दिन हमें फ़ुर्सत दी जाए

बे-ख़द-ओ-ख़ाल सा इक चेहरा लिए फिरता हूँ
चाहता हूँ कि मुझे शक्ल-ओ-शबाहत दी जाए

भरे बाज़ार में बैठा हूँ लिए जिंस-ए-वजूद
शर्त ये है कि मिरी ख़ाक की क़ीमत दी जाए

बस कि दुनिया मिरी आँखों में समा जाएगी
कोई दिन और मिरे ख़्वाब को मोहलत दी जाए