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मिरे सुबूत बहे जा रहे हैं पानी में | शाही शायरी
mere subut bahe ja rahe hain pani mein

ग़ज़ल

मिरे सुबूत बहे जा रहे हैं पानी में

फ़रहत एहसास

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मिरे सुबूत बहे जा रहे हैं पानी में
किसे गवाह बनाऊँ सरा-ए-फ़ानी में

जो आँसुओं में नहाते रहे सो पाक रहे
नमाज़ वर्ना किसे मिल सकी जवानी में

भड़क उठे हैं फिर आँखों में आँसुओं के चराग़
फिर आज आग लगा दी गई है पानी में

हमीं थे ऐसे कहाँ के कि अपने घर जाते
बड़े-बड़ों ने गुज़ारी है बे-मकानी में

ये बे-कनार बदन कौन पार कर पाया
बहे चले गए सब लोग इस रवानी में

विसाल ओ हिज्र कि एक इक चराग़ थे दोनों
सियाह हो के रहे शब के बे-करानी में

बस एक लम्स कि जल जाएँ सब ख़स-ओ-ख़ाशाक
इसे विसाल भी कहते हैं ख़ुश-बयानी में

कहानी ख़त्म हुई तब मुझे ख़याल आया
तिरे सिवा भी तो किरदार थे कहानी में

न चाहिए मुझे वो आसमाँ जो मेरा न हो
मैं ख़ुश हूँ अपनी ही मिट्टी की आसमानी में