मिरे क़रीब से गुज़रे मुझे सदा भी न दे
ज़बाँ को लफ़्ज़ निगाहों को हौसला भी न दे
अब उस से कैसे तअ'ल्लुक़ की आरज़ू रक्खें
दुआ-ए-ख़ैर तो क्या वो कि बद-दुआ भी न दे
ये चाँदनी मैं गिलासों में घोल दूँ न कहीं
मैं चाहता हूँ वो यादों का आसरा भी न दे
हमीं पे सजते हैं यारो शराब भी ग़म भी
ख़ुदा के वास्ते अब कोई मशवरा भी न दे
मिरी निगाह उसी रुख़ की है असीर 'तपिश'
जो अपने रुख़ से किसी बात का पता भी न दे
ग़ज़ल
मिरे क़रीब से गुज़रे मुझे सदा भी न दे
मोनी गोपाल तपिश