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मिरे क़रीब से गुज़रे मुझे सदा भी न दे | शाही शायरी
mere qarib se guzre mujhe sada bhi na de

ग़ज़ल

मिरे क़रीब से गुज़रे मुझे सदा भी न दे

मोनी गोपाल तपिश

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मिरे क़रीब से गुज़रे मुझे सदा भी न दे
ज़बाँ को लफ़्ज़ निगाहों को हौसला भी न दे

अब उस से कैसे तअ'ल्लुक़ की आरज़ू रक्खें
दुआ-ए-ख़ैर तो क्या वो कि बद-दुआ भी न दे

ये चाँदनी मैं गिलासों में घोल दूँ न कहीं
मैं चाहता हूँ वो यादों का आसरा भी न दे

हमीं पे सजते हैं यारो शराब भी ग़म भी
ख़ुदा के वास्ते अब कोई मशवरा भी न दे

मिरी निगाह उसी रुख़ की है असीर 'तपिश'
जो अपने रुख़ से किसी बात का पता भी न दे