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मिरे क़रीब ही महताब देख सकता था | शाही शायरी
mere qarib hi mahtab dekh sakta tha

ग़ज़ल

मिरे क़रीब ही महताब देख सकता था

इदरीस बाबर

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मिरे क़रीब ही महताब देख सकता था
गए दिनों में ये तालाब देख सकता था

इक ऐसे वक़्त में सब पेड़ मैं ने नक़्ल किए
जहाँ पे मैं इन्हें शादाब देख सकता था

ज़ियादा देर उसी नाव में ठहरने से
मैं अपने-आप को ग़र्क़ाब देख सकता था

कोई भी दिल में ज़रा जम के ख़ाक उड़ाता तो
हज़ार गौहर-ए-नायाब देख सकता था

कहानियों ने मिरी आदतें बिगाड़ दी थीं
मैं सिर्फ़ सच को ज़फ़र-याब देख सकता था

मगर वो शहर कहानी में रह गया है दोस्त!
जहाँ मैं रह के तिरे ख़्वाब देख सकता था