EN اردو
मिरे मुद्दआ-ए-उल्फ़त का पयाम बन के आई | शाही शायरी
mere muddaa-e-ulfat ka payam ban ke aai

ग़ज़ल

मिरे मुद्दआ-ए-उल्फ़त का पयाम बन के आई

ग़ुबार भट्टी

;

मिरे मुद्दआ-ए-उल्फ़त का पयाम बन के आई
तिरी ज़ुल्फ़ की सियाही मिरी शाम बन के आई

हुई काशिफ़-ए-हक़ीक़त ये ज़मीर-ए-मय-कदा की
मिरी बे-ख़ुदी जो दुर्द-ए-तह-ए-जाम बन के आई

तिरी इक अदा थी ये भी गुल-ओ-ख़ार को जगाने
जो नसीम-ए-सुब्ह-गाही का ख़िराम बन के आई

ये सबा की बे-रुख़ी थी सू-ए-आशियाँ जो गुज़री
न सलाम ले के आई न पयाम बन के आई

मिरे ग़म-कदे में फूटी जो शुआ' दाग़-ए-दिल से
वही इक चराग़-ए-ताक़-ए-सर-ए-शाम बन के आई

सर-ए-तूर जिस की जूया थी निगाह-ए-चश्म-ए-मूसा
वही इक झलक फ़रोग़-ए-लब-ए-बाम बन के आई

रुख़-ओ-ज़ुल्फ़ की तमन्ना मिरे दिल को मुज़्दा-बादा
मिरी सुब्ह बन के आई मिरी शाम बन के आई

है बहुत मुहाल इस का जो 'ग़ुबार' मा-बदल हो
मिरी तीरगी-ए-क़िस्मत मिरी शाम बन के आई