मिरे लिए तो ये सानेहा भी नया नहीं था
मसाफ़त-ए-जाँ का हम-सफ़र भी मिरा नहीं था
लबों पे पहुँचे तो नीम-जाँ थे हुरूफ़ सारे
समाअतों का कोई दरीचा खुला नहीं था
न मिल सकी उस को रौशनी की कोई बशारत
कि तीरगी का अज़ाब उस ने सहा नहीं था
निगाह-ए-गुलशन में जो खटकता था ख़ार बन के
गले लगा कर उसे जो देखा बुरा नहीं था
वो साहिब-ए-इख़्तियार-ओ-मसनद वो मेरा मुंसिफ़
वो हाकिम-ए-मुतलक़-उल-अनान था ख़ुदा नहीं था
हरीम-ए-जाँ में महक रहा है वो हर्फ़-ए-ख़ुशबू
कि जो अभी शाख़सार-ए-लब पर खिला नहीं था

ग़ज़ल
मिरे लिए तो ये सानेहा भी नया नहीं था
पीर अकरम