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मिरे लबों पे उसी आदमी की प्यास न हो | शाही शायरी
mere labon pe usi aadmi ki pyas na ho

ग़ज़ल

मिरे लबों पे उसी आदमी की प्यास न हो

ताहिर फ़राज़

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मिरे लबों पे उसी आदमी की प्यास न हो
जो चाहता है मिरे सामने गिलास न हो

ये तिश्नगी तो मिली है हमें विरासत में
हमारे वास्ते दरिया कोई उदास न हो

तमाम दिन के दुखों का हिसाब करना है
मैं चाहता हूँ कोई मेरे आस-पास न हो

मुझे भी दुख है ख़ता हो गया निशाना तिरा
कमान खींच मैं हाज़िर हूँ तू उदास न हो

ग़ज़ल ही रह गई ताहिर-'फ़राज़' अपने लिए
जहाँ में कोई ऐसा भी बे-असास न हो