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मिरे कुछ भी कहे को काटता है | शाही शायरी
mere kuchh bhi kahe ko kaTta hai

ग़ज़ल

मिरे कुछ भी कहे को काटता है

बकुल देव

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मिरे कुछ भी कहे को काटता है
वो अपने दाएरे को काटता है

मैं इस बाज़ार के क़ाबिल नहीं हूँ
यहाँ खोटा खरे को काटता है

उदास आँखें पहनती हैं हँसी को
फिर आँसू क़हक़हे को काटता है

न मुझ को हैं क़ुबूल अपनी ख़ताएँ
न वो अपने लिखे को काटता है

तवज्जोह चाहता है ग़म पुराना
सो रह रह कर नए को काटता है

वही आँसू वही माज़ी के क़िस्से
जिसे देखो कटे को काटता है