मिरे कमरे में जो बिखरी हुई है
ये वीरानी किसी की दी हुई है
मुझे कल ख़्वाब में सहरा दिखा था
बदन से ख़ाक सी लिपटी हुई है
यक़ीनन है उसी के तन की ख़ुश्बू
मिरी ग़ज़लों में जो महकी हुई है
अदब वाले अदब से खेलते हैं
ज़बान-ए-'मीर' भी कड़वी हुई है
वो सच्चाई जिसे तुम ढूँढते हो
सलीब-ओ-दार पर लटकी हुई है
किसे कहते हैं ग़ुर्बत जानता हूँ
मिरे दालान में खेली हुई है
शराफ़त अब हया ईमान-दारी
कहाँ ढूँढूँ कहाँ रक्खी हुई है
तू जिस की याद में डूबा है 'आदिल'
वो किस की सोच में खोई हुई है
ग़ज़ल
मिरे कमरे में जो बिखरी हुई है
कामरान आदिल