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मिरे हाल से नहीं बे-ख़बर मिरा कूज़ा-गर | शाही शायरी
mere haal se nahin be-KHabar mera kuza-gar

ग़ज़ल

मिरे हाल से नहीं बे-ख़बर मिरा कूज़ा-गर

खुर्शीद बेग मलेस्वी

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मिरे हाल से नहीं बे-ख़बर मिरा कूज़ा-गर
कि है शाह-रग से क़रीब-तर मिरा कूज़ा-गर

कभी बख़्श दे मिरे ख़द्द-ओ-ख़ाल को ताज़गी
कभी नोच ले मिरे बाल-ओ-पर मिरा कूज़ा-गर

कहीं जान-ए-जाँ कहीं मेहरबाँ कहीं राज़-दाँ
कहीं नुक्ता-बीं, कहीं नुक्ता-वर मिरा कूज़ा-गर

मिरी ख़ूबियों मिरी ख़ामियों से है बे-ख़बर
नहीं बे-बसर नहीं कम-नज़र मिरा कूज़ा-गर

मिरा आइना कभी संग-ओ-ख़िश्त में ढाल दे
कभी तोड़ दे मुझे जोड़ कर मिरा कूज़ा-गर

मुझे ऐसे लगता है मेरे जिस्म की ख़ाक को
अभी और रक्खेगा चाक पर मिरा कूज़ा-गर

मुझे रास्तों की सऊबतों से नहीं ख़तर
मिरे साथ है मिरा हम-सफ़र मिरा कूज़ा-गर

वही ज़ख़्म दे वही ज़ख़्म-ए-दिल की दवा करे
मिरा मेहरबाँ मिरा चारा-गर मिरा कूज़ा-गर