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मिरे ए'तिमाद को ग़म मिला मिरी जब किसी पे नज़र गई | शाही शायरी
mere etimad ko gham mila meri jab kisi pe nazar gai

ग़ज़ल

मिरे ए'तिमाद को ग़म मिला मिरी जब किसी पे नज़र गई

शम्स फ़र्रुख़ाबादी

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मिरे ए'तिमाद को ग़म मिला मिरी जब किसी पे नज़र गई
इसी जुस्तुजू इसी कर्ब में मिरी सारी उम्र गुज़र गई

कभी बन के इश्क़ की राज़-दाँ कभी हो के आह की दास्ताँ
कई तरह तेरे हुज़ूर तक मिरे हाल-ए-दिल की ख़बर गई

मुझे मेरे हाल पे छोड़ दो मिरे दोस्तो ये करम करो
मिरी उम्र-ए-रफ़्ता को दो सदा मुझे दर्द दे के किधर गई

कभी मय-कशों से ख़ुलूस था तिरी चश्म-ए-शीशा-नवाज़ को
मगर अब ये दूर है साक़िया कि नज़र से क़द्र-ए-बशर गई

मुझे ज़ब्त-ए-ग़म का न दे सबक़ ज़रा अपने हाल पे कर नज़र
मिरी उलझनों के ख़याल से तिरी ज़ुल्फ़ भी तो बिखर गई

ये तो वक़्त वक़्त की बात है कोई रो दिया कोई हँस दिया
मिरी वारदात-ए-दिल-ओ-नज़र मिरी ज़िंदगी पे गुज़र गई

किसे ढूँडते हो नगर नगर किसे शहर शहर हो पूछते
तुम्हें 'शम्स' जिस की तलाश है वो निगाह-ए-आइना गिर गई