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मिरे चारा-गर तुझे क्या ख़बर, जो अज़ाब-ए-हिज्र-ओ-विसाल है | शाही शायरी
mere chaara-gar tujhe kya KHabar, jo azab-e-hijr-o-visal hai

ग़ज़ल

मिरे चारा-गर तुझे क्या ख़बर, जो अज़ाब-ए-हिज्र-ओ-विसाल है

तसनीम आबिदी

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मिरे चारा-गर तुझे क्या ख़बर, जो अज़ाब-ए-हिज्र-ओ-विसाल है
ये दरीदा तन ये दरीदा मन तिरी चाहतों का कमाल है

मुझे साँस साँस गिराँ लगे, ये वजूद वहम-ओ-गुमाँ लगे
मैं तलाश ख़ुद को करूँ कहाँ मिरी ज़ात ख़्वाब-ओ-ख़याल है

वो जो चश्म-ए-तर में ठहर गया वो सितारा जाने किधर गया
न नशात-ए-ग़म का हुजूम अब न ही सब्ज़ याद की डाल है

उसे फ़स्ल फ़स्ल भी सींच कर मिला साया और न मिला समर
ये अजीब इश्क़ का पेड़ है ये अजीब शाख़-ए-निहाल है

मिरा हर्फ़ हर्फ़ उसी का है मिरे ख़्वाब ख़्वाब में वो बसा
जो क़रीब रह के भी दूर है उसे पाना कितना मुहाल है