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मिरे अंदर कहीं पर खो गई है | शाही शायरी
mere andar kahin par kho gai hai

ग़ज़ल

मिरे अंदर कहीं पर खो गई है

वजीह सानी

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मिरे अंदर कहीं पर खो गई है
मोहब्बत ख़ाक में लुथड़ी हुई है

मैं ज़ख़्मी दिल लिए कब तक फिरूंगा
तिरी ख़्वाहिश तो कब की मर चुकी है

मिरी आँखों में हैं आँसू अभी तक
कली इक मेज़ पर अब तक धरी है

तिरे ग़म को समेटा जब तो देखा
उदासी सहन में बिखरी पड़ी है

तिरा साया मुझे लिपटा हुआ है
तो फिर तू फ़ासले पर क्यूँ खड़ी है

लकीरें हिज्र का दुख रो पड़ीं या
तुम्हारे हाथ में मेहंदी रची है