मिरा उस के पस-ए-दीवार घर होता तो क्या होता
क़ज़ा से ऐ फ़लक गर इस क़दर होता तो क्या होता
जनाज़े पर मिरे उस शोख़ को लाया है तू आख़िर
अगर ऐ इश्क़ कुछ तुझ में असर होता तो क्या होता
हुआ बेहोश बिल्कुल आह उस की आमद आमद में
गर आने से मैं उस के बा-ख़बर होता तो क्या होता
इसी आलम में हैं ये लुत्फ़ ऐ दिल इश्क़-बाज़ी के
अगर बाग़-ए-जिनाँ में बुल-बशर होता तो क्या होता
तजल्ली तो हुई मूसा को पर मेरी तरह वाइज़
हमेशा जल्वा-गर हर इक शजर होता तो क्या होता
हुनर-मंदों को तेरे हाथ से है ज़िंदगी मुश्किल
जो तुझ में भी कोई ऐ दिल हुनर होता तो क्या होता
किया बदनाम इक आलम ने 'ग़मगीं' पाक-बाज़ी में
जो मैं तेरी तरह से बद-नज़र होता तो क्या होता
ग़ज़ल
मिरा उस के पस-ए-दीवार घर होता तो क्या होता
ग़मगीन देहलवी