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मिरा ख़ुलूस-ए-मोहब्बत भी कामराँ न हुआ | शाही शायरी
mera KHulus-e-mohabbat bhi kaamran na hua

ग़ज़ल

मिरा ख़ुलूस-ए-मोहब्बत भी कामराँ न हुआ

कशफ़ी लखनवी

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मिरा ख़ुलूस-ए-मोहब्बत भी कामराँ न हुआ
वो ज़ुल्म ढाता रहा मुझ पे मेहरबाँ न हुआ

जबीन-ए-इश्क़ झुकी है न झुक सकेगी कभी
बरा-ए-सज्दा अगर तेरा आस्ताँ न हुआ

है बात क्या जो अभी तक खिले न लाला-ओ-गुल
ख़िज़ाँ के बा'द भी शादाब गुलिस्ताँ न हुआ

तिरी हँसी पे लुटा देते चाँद तारों को
हमारे ज़ेर-ए-असर आज आसमाँ न हुआ

वो आए मेरे तसव्वुर में शुक्रिया उन का
ज़हे-नसीब मिरा जज़्ब राएगाँ न हुआ

किसी के इश्क़ ने वो हौसला दिया मुझ को
कोई भी ग़म मिरे दिल पर कभी गराँ न हुआ

वो आशियाना हो गुलशन हो या क़फ़स 'कशफ़ी'
सितम ज़माने में हम पर कहाँ कहाँ न हुआ