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मिरा है कौन दुश्मन मेरी चाहत कौन रखता है | शाही शायरी
mera hai kaun dushman meri chahat kaun rakhta hai

ग़ज़ल

मिरा है कौन दुश्मन मेरी चाहत कौन रखता है

ऐतबार साजिद

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मिरा है कौन दुश्मन मेरी चाहत कौन रखता है
इसी पर सोचते रहने की फ़ुर्सत कौन रखता है

मकीनों के तअल्लुक़ ही से याद आती है हर बस्ती
वगरना सिर्फ़ बाम-ओ-दर से उल्फ़त कौन रखता है

नहीं है निर्ख़ कोई मेरे इन अशआर-ए-ताज़ा का
ये मेरे ख़्वाब हैं ख़्वाबों की क़ीमत कौन रखता है

दर-ए-ख़ेमा खुला रक्खा है गुल कर के दिया हम ने
सो इज़्न-ए-आम है लो शौक़-रुख़्सत कौन रखता है

मरे दुश्मन का क़द इस भीड़ में मुझ से तो ऊँचा हो
यही में ढूँढता हूँ ऐसी क़ामत कौन रखता है

हमारे शहर की रौनक़ है कुछ मशहूर लोगों से
मगर सब जानते हैं कैसी शोहरत कौन रखता है