मिरा दिल संग-दिल ने दिल का अरमाँ बन के लूटा है
ग़ज़ब है ख़ाना-ए-उल्फ़त को मेहमाँ बन के लूटा है
किया अंधेर ज़ालिम ने बुझा कर शम-ए-उल्फ़त को
उमीदों की सहर को शाम-ए-हिज्राँ बन के लूटा है
झलक दिखला के जिस ने नींद आँखों की उड़ाई थी
उसी ने नक़्द-ए-दिल ख़्वाब-ए-परेशाँ बन के लूटा है
ज़बान-ए-इश्क़ में जिस को कहेंगे दुश्मन-ए-ईमाँ
उसी पैमाँ-शिकन ने रूह-ए-ईमाँ बन के लूटा है
ज़बान-ए-शौक़ पर रख रख के इल्ज़ाम-ए-सुख़न-साज़ी
बुत-ए-ख़ामोश ने मुझ को ज़बान-दाँ बन के लूटा है
मैं जिस को मंज़िल-ए-मक़्सूद का रहबर समझता था
उसी बे-दर्द ने मुझ को निगहबाँ बन के लौटा है
किया मुझ को शिकार-ए-कुफ़्र ले कर आड़ ईमाँ की
किसी काफ़िर ने ऐ 'नाज़िश' मुसलमाँ बन के लूटा है
ग़ज़ल
मिरा दिल संग-दिल ने दिल का अरमाँ बन के लूटा है
नाज़िश सिकन्दरपुरी