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मिरा दिल दाद-ख़्वाह-ए-ज़ुल्म असलन हो नहीं सकता | शाही शायरी
mera dil dad-KHwah-e-zulm aslan ho nahin sakta

ग़ज़ल

मिरा दिल दाद-ख़्वाह-ए-ज़ुल्म असलन हो नहीं सकता

साक़िब लखनवी

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मिरा दिल दाद-ख़्वाह-ए-ज़ुल्म असलन हो नहीं सकता
मुरव्वत मुँह को सी देती है शिकवा हो नहीं सकता

छुपाओ आप को जिस रंग या जिस भेस में चाहो
मगर चश्म-ए-हक़ीक़त-बीं से पर्दा हो नहीं सकता

तमाशा-गाह-ए-हैरत है दयार-ए-दिल की वीरानी
ये सन्नाटा मियान-ए-दश्त-ओ-सहरा हो नहीं सकता

बढ़ा एक और ग़म इफ़्शा-ए-राज़-ए-इश्क़ से वर्ना
न मैं खुलता न वो कहते कि ऐसा हो नहीं सकता

मिरे ज़ुल्मत-कदे में रोज़-ए-रौशन का गुज़र कैसा
सलामत है शब-ए-ग़म तो उजाला हो नहीं सकता

दम-ए-अहद-ओ-वफ़ा ठहरा न उन के सामने कोई
सिवा मेरे तो मैं किस दिल से कहता हो नहीं सकता

कभी कज-तबअ' को देखा न सीधी राह पर आते
जो है दर-अस्ल बद-बातिन वो अच्छा हो नहीं सकता

न हों संग-ए-दर-ए-मय-ख़ाना अहल-ए-ज़ोहद ऐ 'साक़िब'
कि मैं पाबंद-ए-रस्म-ओ-राह-ए-तक़्वा हो नहीं सकता