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मिरा बदन है मगर मुझ से अजनबी है अभी | शाही शायरी
mera badan hai magar mujhse ajnabi hai abhi

ग़ज़ल

मिरा बदन है मगर मुझ से अजनबी है अभी

आबिद आलमी

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मिरा बदन है मगर मुझ से अजनबी है अभी
मिरे ख़याल से मुझ में कोई कमी है अभी

सहर सहर न पुकारो दुबक के सो जाओ
तुम्हारे हिस्से की शब तो बहुत पड़ी है अभी

न पूछो कैसे हुईं ढेर घर की दीवारें
वो इक सदा उसी मलबे में घूमती है अभी

वो जिस की लहरों ने सदियों का फ़र्क़ डाल दिया
हमारे बीच में हाइल वही नदी है अभी

मैं थक गया हूँ मुझे एक लम्हा सोने दो
मैं जानता हूँ कि मंज़िल बहुत पड़ी है अभी

मैं उस के वास्ते सूरज कहाँ से आख़िर लाऊँ
न जाने रात मुझे क्या समझ रही है अभी

न जाने कब से सफ़र में थी उस को मत छेड़ो
ये गर्द मेरे बदन पर ज़रा जमी है अभी

वो मैं नहीं था वो मेरी सदा थी गलियों में
कि मेरे पाँव में ज़ंजीर तो पड़ी है अभी

न जाने वक़्त कब एल्बम समेट ले अपना
ये तेज़ तेज़ हवा यूँ तो चल रही है अभी