कहीं पहुँचो भी मुझ बे-पा-ओ-सर तक 
कि पहुँचा शम्अ-साँ दाग़ अब जिगर तक 
कुछ अपनी आँख में याँ का न आया 
ख़ज़फ़ से ले के देखा दर-ए-तर तक 
जिसे शब आग सा देखा सुलगते 
उसे फिर ख़ाक ही पाया सहर तक 
तिरा मुँह चाँद सा देखा है शायद 
कि अंजुम रहते हैं हर शब इधर तक 
जब आया आह तब अपने ही सर पर 
गया ये हाथ कब उस की कमर तक 
हम आवाज़ों को सैर अब की मुबारक 
पर-ओ-बाल अपने भी ऐसे थे पर तक 
खिंची क्या क्या ख़राबी ज़ेर-ए-दीवार 
वले आया न वो टक घर से दर तक 
गली तक तेरी लाया था हमें शौक़ 
कहाँ ताक़त कि अब फिर जाएँ घर तक 
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब 
तो आता है जिगर मिज़्गान-ए-तर तक 
दिखाई देंगे हम मय्यत के रंगों 
अगर रह जाएँगे जीते सहर तक 
कहाँ फिर शोर शेवन जब गया 'मीर' 
ये हंगामा है इस ही नौहागर तक
        ग़ज़ल
कहीं पहुँचो भी मुझ बे-पा-ओ-सर तक
मीर तक़ी मीर

