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नई तर्ज़ों से मयख़ाने में रंग-ए-मय झलकता था | शाही शायरी
nai tarzon se maiKHane mein rang-e-mai jhalakta tha

ग़ज़ल

नई तर्ज़ों से मयख़ाने में रंग-ए-मय झलकता था

मीर तक़ी मीर

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नई तर्ज़ों से मयख़ाने में रंग-ए-मय झलकता था
गुलाबी रोती थी वाँ जाम हंस हंस कर छलकता था

तिरे उस ख़ाक उड़ाने की धमक से ऐ मरी वहशत
कलेजा रेग-ए-सहरा का भी दस दस गज़ थिलक्ता था

गई तस्बीह उस की नज़्अ' में कब 'मीर' के दिल से
उसी के नाम की सुमरन थी जब मुनक्का ढलकता था