क्या दिन थे वे कि याँ भी दिल आर्मीदा था 
रू-आशियाँ ताइर-ए-रंग-परीदा था 
क़ासिद जो वाँ से आया तो शर्मिंदा मैं हुआ 
बेचारा गिर्या-नाक गरेबाँ दरीदा था 
इक वक़्त हम को था सर-ए-गिर्या कि दश्त में 
जो ख़ार ख़ुश्क था सौ वो तूफ़ाँ रसीदा था 
जिस सैद-गाह-ए-इश्क़ में यारों का जी गया 
मर्ग उस शिकार-गह का शिकार रमीदा था 
कोरी चश्म क्यूँ न ज़ियारत को उस की आए 
यूसुफ़ सा जिस को मद्द-ए-नज़र नूर-दीदा था 
अफ़्सोस मर्ग सब्र है इस वास्ते कि वो 
गुल-ए-हा-ए-बाग़ इशरत-ए-दुनिया नचीदा था 
मत पूछ किस तरह से कटी रात हिज्र की 
हर नाला मेरी जान को तेग़ कशीदा था 
हासिल न पूछ गुलशन-ए-मशहद का बुल-हवस 
याँ फल हर इक दरख़्त का हल्क़-ए-बुरीदा था 
दिल-ए-बे-क़रार गिर्या-ए-ख़ूनीं था रात 'मीर' 
आया नज़र तो बिस्मिल दर-ए-ख़ूँ तपीदा था
        ग़ज़ल
क्या दिन थे वे कि याँ भी दिल आर्मीदा था
मीर तक़ी मीर

