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मोहब्बत का जब रोज़ बाज़ार होगा | शाही शायरी
mohabbat ka jab rose bazar hoga

ग़ज़ल

मोहब्बत का जब रोज़ बाज़ार होगा

मीर तक़ी मीर

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मोहब्बत का जब रोज़ बाज़ार होगा
बिकेंगे सर और कम ख़रीदार होगा

तसल्ली हुआ सब्र से कुछ मैं तुझ बिन
कभी ये क़यामत तरहदार होगा

सबा मू-ए-ज़ुल्फ़ उस का टूटे तो डर है
कि इक वक़्त में ये सियह-मार होगा

मिरा दाँत है तेरे होंटों पे मत पूछ
कहूँगा तो लड़ने को तय्यार होगा

न ख़ाली रहेगी मिरी जागह गर मैं
न हूँगा तो अंदोह बिसयार होगा

ये मंसूर का ख़ून-ए-नाहक़ कि हक़ था
क़यामत को किस किस से ख़ूँदार होगा

अजब शैख़-जी की है शक्ल-ओ-शमाइल
मिलेगा तो सूरत से बेज़ार होगा

न रो इश्क़ में दश्त-गर्दी को मजनूँ
अभी क्या हुआ है बहुत ख़्वार होगा

खिंचे अहद-ए-ख़त में भी दिल तेरी जानिब
कभू तो क़यामत तरहदार होगा

ज़मींगीर हो इज्ज़ से तू कि इक दिन
ये दीवार का साया दीवार होगा

न मर कर भी छूटेगा इतना रुकेगा
तिरे दाम में जो गिरफ़्तार होगा

न पूछ अपनी मज्लिस में है 'मीर' भी याँ
जो होगा तो जैसे गुनहगार होगा