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पाए ख़िताब क्या क्या देखे इ'ताब क्या क्या | शाही शायरी
pae KHitab kya kya dekhe itab kya kya

ग़ज़ल

पाए ख़िताब क्या क्या देखे इ'ताब क्या क्या

मीर तक़ी मीर

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पाए ख़िताब क्या क्या देखे इ'ताब क्या क्या
दिल को लगा के हम ने खींचे अज़ाब क्या क्या

काटे हैं ख़ाक उड़ा कर जों गर्द-बाद बरसों
गलियों में हम हुए हैं उस बिन ख़राब क्या क्या

कुछ गुल से हैं शगुफ़्ता कुछ सर्व से हैं क़द-कश
उस के ख़याल में हम देखे हैं ख़्वाब क्या क्या

अन्वा-ए-जुर्म मेरे फिर बे-शुमार-ओ-बे-हद
रोज़-ए-हिसाब लेंगे मुझ से हिसाब क्या क्या

इक आग लग रही है सीनों में कुछ न पूछो
जल जल के हम हुए हैं उस बिन कबाब क्या क्या

इफ़रात-ए-शौक़ में तो रूयत रही न मुतलक़
कहते हैं मेरे मुँह पर अब शैख़-ओ-शाब क्या क्या

फिर फिर गया है आ कर मुँह तक जिगर हमारे
गुज़रे हैं जान-ओ-दिल पर याँ इज़्तिराब क्या क्या

आशुफ़्ता उस के गेसू जब से हुए हैं मुँह पर
तब से हमारे दिल को है पेच-ओ-ताब क्या क्या

कुछ सूझता नहीं है मस्ती में 'मीर'-जी को
करते हैं पोच-गोई पी कर शराब क्या क्या