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नाज़-ए-चमन वही है बुलबुल से गो ख़िज़ाँ है | शाही शायरी
naz-e-chaman wahi hai bulbul se go KHizan hai

ग़ज़ल

नाज़-ए-चमन वही है बुलबुल से गो ख़िज़ाँ है

मीर तक़ी मीर

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नाज़-ए-चमन वही है बुलबुल से गो ख़िज़ाँ है
टहनी जो ज़र्द भी है सो शाख़-ए-ज़ाफ़राँ है

गर इस चमन में वो भी इक ही लब-ओ-दहाँ है
लेकिन सुख़न का तुझ से ग़ुंचे को मुँह कहाँ है

हंगाम-ए-जल्वा उस के मुश्किल है ठहरे रहना
चितवन है दिल की आफ़त-ए-चश्मक बला-ए-जाँ है

पत्थर से तोड़ने के क़ाबिल है आरसी तू
पर क्या करें कि प्यारे मुँह तेरा दरमियाँ है

बाग़-ओ-बहार है वो मैं किश्त-ए-ज़ाफ़राँ हूँ
जो लुत्फ़ इक इधर है तो याँ भी इक समाँ है

हर-चंद ज़ब्त करिए छुपता है इश्क़ कोई
गुज़रे है दिल पे जो कुछ चेहरे ही से अयाँ है

इस फ़न में कोई बे-तह क्या हो मिरा मुआरिज़
अव्वल तो मैं सनद हूँ फिर ये मिरी ज़बाँ है

आलम में आब-ओ-गिल का ठहराव किस तरह हो
गर ख़ाक है अड़े है वर आब है रवाँ है

चर्चा रहेगा उस का ता-हश्र मय-कशाँ में
ख़ूँ-रेज़ी की हमारी रंगीन दास्ताँ है

अज़-ख़वीश रफ़्ता उस बिन रहता है 'मीर' अक्सर
रहते हो बात किस से वो आप में कहाँ है