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रही न पुख़्तगी आलम में दूर ख़ामी है | शाही शायरी
rahi na puKHtagi aalam mein dur KHami hai

ग़ज़ल

रही न पुख़्तगी आलम में दूर ख़ामी है

मीर तक़ी मीर

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रही न पुख़्तगी आलम में दूर ख़ामी है
हज़ार हैफ़ कमीनों का चर्ख़ हामी है

न उठ तो घर से अगर चाहता है हूँ मशहूर
नगीं जो बैठा है गड़ कर तो कैसा नामी है

हुई हैं फ़िक्रें परेशान 'मीर' यारों की
हवास-ए-ख़मसा करे जम्अ' सो 'निज़ामी' है