रही न पुख़्तगी आलम में दूर ख़ामी है
हज़ार हैफ़ कमीनों का चर्ख़ हामी है
न उठ तो घर से अगर चाहता है हूँ मशहूर
नगीं जो बैठा है गड़ कर तो कैसा नामी है
हुई हैं फ़िक्रें परेशान 'मीर' यारों की
हवास-ए-ख़मसा करे जम्अ' सो 'निज़ामी' है
ग़ज़ल
रही न पुख़्तगी आलम में दूर ख़ामी है
मीर तक़ी मीर