कोई हुआ न रू-कश टक मेरी चश्म-ए-तर से 
क्या क्या न अब्र आ कर याँ ज़ोर ज़ोर बरसे 
वहशत से मेरी यारो ख़ातिर न जम्अ' रखियो 
फिर आवे या न आवे नौ पुर उठा जो घर से 
अब जूँ सरिश्क उन से फिरने की चश्म मत रख 
जो ख़ाक में मिले हैं गिर कर तिरी नज़र से 
दीदार ख़्वाह उस के कम हों तो शोर कम हो 
हर सुब्ह इक क़यामत उठती है उस के दर से 
दाग़ एक हो जिला भी ख़ूँ एक हो बहा भी 
अब बहस क्या है दिल से क्या गुफ़्तुगू जिगर से 
दिल किस तरह न खींचें अशआ'र रेख़्ते के 
बेहतर क्या है मैं ने उस ऐब को हुनर से 
अंजाम-ए-कार बुलबुल देखा हम अपनी आँखों 
आवारा थे चमन में दो चार टूटे पर से 
बे-ताक़ती ने दिल की आख़िर को मार रखा 
आफ़त हमारे जी की आई हमारे घर से 
दिलकश ये मंज़िल आख़िर देखा तो आह निकली 
सब यार जा चुके थे आए जो हम सफ़र से 
आवारा 'मीर' शायद वाँ ख़ाक हो गया है 
यक गर्द उठ चले है गाह उस की रहगुज़र से
        ग़ज़ल
कोई हुआ न रू-कश टक मेरी चश्म-ए-तर से
मीर तक़ी मीर

