शब शम्अ' पर पतंग के आने को इश्क़ है
उस दिल-जले के ताब के लाने को इश्क़ है
सर मार मार संग से मर्दाना जी दिया
फ़रहाद के जहान से जाने को इश्क़ है
उठियो समझ के जा से कि मानिंद-ए-गर्द-बाद
आवारगी से तेरी ज़माने को इश्क़ है
बस ऐ सिपहर सई से तेरी तो रोज़-ओ-शब
याँ ग़म सताने को है जलाने को इश्क़ है
बैठी जो तेग़-ए-यार तो सब तुझ को खा गई
ऐ सीने तेरे ज़ख़्म उठाने को इश्क़ है
इक दम में तू ने फूँक दिया दो-जहाँ के तीं
ऐ इश्क़ तेरे आग लगाने को इश्क़ है
सौदा हो तब हो 'मीर' को तो करिए कुछ इलाज
उस तेरे देखने के दिवाने को इश्क़ है
ग़ज़ल
शब शम्अ' पर पतंग के आने को इश्क़ है
मीर तक़ी मीर