महर की तुझ से तवक़्क़ो' थी सितमगर निकला
मोम समझे थे तिरे दिल को सो पत्थर निकला
दाग़ हूँ रश्क-ए-मोहब्बत से कि इतना बेताब
किस की तस्कीं के लिए घर से तू बाहर निकला
जीते जी आह तिरे कूचे से कोई न फिरा
जो सितम-दीदा रहा जा के सो मर कर निकला
दिल की आबादी की इस हद है ख़राबी कि न पूछ
जाना जाता है कि उस राह से लश्कर निकला
अश्क-ए-तर क़तरा-ए-ख़ूँ लख़्त-ए-जिगर पारा-ए-दिल
एक से एक अदद आँख से बह कर निकला
कुंज-कावी जो की सीने की ग़म-ए-हिज्राँ ने
इस दफ़ीने में से अक़साम-ए-जवाहर निकला
हम ने जाना था लिखेगा तू कोई हर्फ़ ऐ 'मीर'
पर तिरा नामा तो इक शौक़ का दफ़्तर निकला
ग़ज़ल
महर की तुझ से तवक़्क़ो' थी सितमगर निकला
मीर तक़ी मीर