यारब कोई हो इश्क़ का बीमार न होवे
मर जाए वले उस को ये आज़ार न होवे
ज़िंदाँ में फँसे तौक़ पड़े क़ैद में मर जाए
पर दाम-ए-मोहब्बत में गिरफ़्तार न होवे
उस वास्ते काँपूँ हूँ कि है आह निपट सर्द
ये बाव कलेजे के कहीं पार न होवे
सद नाला-ए-जान-काह हैं वाबस्ता चमन से
कोई बाल शिकस्ता पस-ए-दीवार न होवे
पज़मुर्दा बहुत है गुल-ए-गुलज़ार हमारा
शर्मिंदा-ए-यक-गोशा-ए-दस्तार न होवे
माँगे है दुआ ख़ल्क़ तुझे देख के ज़ालिम
यारब कसो को उस से सरोकार न होवे
किस शक्ल से अहवाल कहूँ अब मैं इलाही
सूरत से मिरी जिस में वो बेज़ार न होवे
हूँ दोस्त जो कहता हूँ सिन ऐ जान के दुश्मन
बेहतर तो तुझे तर्क है ता-ख़्वार न होवे
ख़ूबाँ बुरे होते हैं अगरचे हैं नकोरो
बे-जुर्म कहीं उन का गुनहगार न होवे
बाँधे न फिरे ख़ून पर अपनी तो कमर को
ये जान-ए-सुबुक तन पे तिरे बार न होवे
चलता है रह-ए-इश्क़ ही उस पर भी चले तू
पर एक क़दम चल कहीं ज़िन्हार न होवे
सहरा-ए-मोहब्बत है क़दम देख के रख 'मीर'
ये सैर सर-ए-कूचा-ओ-बाज़ार न होवे
ग़ज़ल
यारब कोई हो इश्क़ का बीमार न होवे
मीर तक़ी मीर