कई दिन सुलूक विदाअ' का मिरे दर पय दिल ज़ार था 
कभू दर्द था कभू दाग़ था कभू ज़ख़्म था कभू वार था 
दम-ए-सुब्ह बज़्म-ए-ख़ुश जहाँ शब-ए-ग़म से कम न थी मेहरबाँ 
कि चराग़ था सो तू दूद था जो पतंग था सो ग़ुबार था 
दिल ख़स्ता-लोहू जो हो गया तो भला हुआ कि कहाँ तलक 
कभू सोज़-ए-सीना से दाग़ था कभू दर्द-ओ-ग़म से फ़िगार था 
दिल-ए-मुज़्तरिब से गुज़र गई शब-ए-वस्ल अपनी ही फ़िक्र में 
न दिमाग़ था न फ़राग़ था न शकेब था न क़रार था 
जो निगाह की भी पलक उठा तो हमारे दिल से लहू बहा 
कि वहीं वो नावक-ए-बे-ख़ता कसो के कलेजे के पार था 
ये तुम्हारी इन दिनों दोस्ताँ मिज़ा जिस के ग़म में है ख़ूँ-चकाँ 
वही आफ़त-ए-दिल-ए-आशिक़ाँ कसो वक़्त हम से भी यार था 
नहीं ताज़ा-दिल की शिकस्तगी यही दर्द था यही ख़स्तगी 
उसे जब से ज़ौक़-ए-शिकार था उसे ज़ख़्म से सरोकार था 
कभू जाएगी जो उधर सबा तो ये कहियो उस से कि बेवफ़ा 
मगर एक 'मीर' शिकस्ता-पा तिरे बाग़-ए-ताज़ा में ख़ार था
        ग़ज़ल
कई दिन सुलूक विदाअ' का मिरे दर पय दिल ज़ार था
मीर तक़ी मीर

