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ख़राबी कुछ न पूछो मुलकत-ए-दिल की इमारत की | शाही शायरी
KHarabi kuchh na puchho mulkat-e-dil ki imarat ki

ग़ज़ल

ख़राबी कुछ न पूछो मुलकत-ए-दिल की इमारत की

मीर तक़ी मीर

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ख़राबी कुछ न पूछो मुलकत-ए-दिल की इमारत की
ग़मों ने आज-कल सुनियो वो आबादी ही ग़ारत की

निगाह-ए-मस्त से जब चश्म ने इस की इशारत की
हलावत मय की और बुनियाद मयख़ाने की ग़ारत की

सहर-गह मैं ने पूछा गुल से हाल-ए-ज़ार बुलबुल का
पड़े थे बाग़ में यक-मुशत पर ऊधर इशारत की

जलाया जिस तजल्ली-ए-जल्वा-गर ने तूर को हम-दम
उसी आतिश के पर काले ने हम से भी शरारत की

नज़ाकत क्या कहूँ ख़ुर्शीद-रू की कल शब-ए-मह में
गया था साए साए बाग़ तक तिस पर हरारत की

नज़र से जिस की यूसुफ़ सा गया फिर उस को क्या सूझे
हक़ीक़त कुछ न पूछो पीर-ए-कनआँ' की बसारत की

तिरे कूचे के शौक़-ए-तौफ़ में जैसे बगूला था
बयाबाँ मैं ग़ुबार 'मीर' की हम ने ज़ियारत की