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यकसू कुशादा-रवी पर चीं नहीं जबीं भी | शाही शायरी
yaksu kushada-rawi par chin nahin jabin bhi

ग़ज़ल

यकसू कुशादा-रवी पर चीं नहीं जबीं भी

मीर तक़ी मीर

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यकसू कुशादा-रवी पर चीं नहीं जबीं भी
हम छोड़ी महर उस की काश उस को होवे कीं भी

आँसू तो तेरे दामन पोंछे है वक़्त गिर्या
हम ने न रखी मुँह पर ऐ अब्र-ए-आस्तीं भी

करता नहीं अबस तो पारा गुलो-फ़ुग़ाँ से
गुज़रे है पार दिल के इक नाला-ए-हज़ीं भी

हूँ एहतिज़ार में मैं आईना-रू शिताब आ
जाता है वर्ना ग़ाफ़िल फिर दम तो वापसीं भी

सीने से तीर उस का जी को तो लेता निकला
पर साथों साथ उस के निकली इक आफ़रीं भी

हर शब तिरी गली में आलम की जान जा है
आगे हवा है अब तक ऐसा सितम कहीं भी

शोख़ी-ए-जल्वा उस की तस्कीन क्यूँके बख़्शे
आईनों में दिलों के जो है भी फिर नहीं भी

गेसू ही कुछ नहीं है सुम्बुल की आफ़त उस का
हैं बर्क़ ख़िर्मन-ए-गुल रुख़्सार-ए-आतिशीं भी

तकलीफ़-ए-नाला मत कर ऐ दर्द दिल कि होंगे
रंजीदा राह चलते आज़ुर्दा हम-नशीं भी

किस किस का दाग़ देखें यारब ग़म-ए-बुताँ में
रुख़्सत तलब है जाँ भी ईमान और दीं भी

ज़ेर-ए-फ़लक जहाँ टक आसूदा 'मीर' होते
ऐसा नज़र न आया इक क़ता-ए-ज़मीं भी