कल 'मीर' ने क्या किया की मय के लिए बेताबी 
आख़िर को गिरो रखा सज्जादा-ए-मेहराबी 
जागा है कहीं वो भी शब मुर्तकिब-ए-मय हो 
ये बात सुझाती है उन आँखों की बे-ख़्वाबी 
क्या शहर में गुंजाइश मुझ बे-सर-ओ-पा को हो 
अब बढ़ गए हैं मेरे अस्बाब-ए-कम-असबाबी 
दिन-रात मिरी छाती जलती है मोहब्बत में 
क्या और न थी जागा ये आग जो याँ दाबी 
सो मलक फिरा लेकिन पाई न वफ़ा इक जा 
जी खा गई है मेरा इस जिंस की नायाबी 
ख़ूँ बस्ता न क्यूँ पलकें हर लहज़ा रहीं मेरी 
जाते नहीं आँखों से लब-ए-यार के उन्नाबी 
जंगल ही हरे तन्हा रोने से नहीं मेरे 
कोहों की कमर तक भी जा पहुँची है सैराबी 
थे माह-विशाँ कल जो उन कोठों पे जल्वे में 
है ख़ाक से आज उन की हर सहन में महताबी 
कल 'मीर' जो याँ आया तौर इस का बहुत भाया 
वो ख़ुश्क-लबी तिस पर जामा गले में आबी
        ग़ज़ल
कल 'मीर' ने क्या किया की मय के लिए बेताबी
मीर तक़ी मीर

