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ख़त लिख के कोई सादा न उस को मलूल हो | शाही शायरी
KHat likh ke koi sada na usko malul ho

ग़ज़ल

ख़त लिख के कोई सादा न उस को मलूल हो

मीर तक़ी मीर

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ख़त लिख के कोई सादा न उस को मलूल हो
हम तो हूँ बद-गुमान जो क़ासिद-ए-रसूल हो

चाहूँ तो भर के कौली उठा लूँ अभी तुम्हें
कैसे ही भारी हो मिरे आगे तो फूल हो

सुर्मा जो नूर बख़्शे है आँखों को ख़ल्क़ की
शायद कि राह-ए-यार की ही ख़ाक धूल हो

जावें निसार होने को हम किस बिसात पर
इक नीम जाँ रखें हैं सो वो जब क़ुबूल हो

हम इन दिनों में लग नहीं पड़ते हैं सुब्ह-ओ-शाम
वर्ना दुआ करें तो जो चाहें हुसूल हो

दिल ले के लौंडे दिल्ली के कब का पचा गए
अब उन से खाई पी हुई शय किया वसूल हो

नाकाम इस लिए हो कि चाहो हो सब कुछ आज
तुम भी तो 'मीर' साहिब-ओ-क़िबला अजूल हो