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ये तर्क हो के ख़शिन कज अगर कुलाह करें | शाही शायरी
ye tark ho ke KHashin kaj agar kulah karen

ग़ज़ल

ये तर्क हो के ख़शिन कज अगर कुलाह करें

मीर तक़ी मीर

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ये तर्क हो के ख़शिन कज अगर कुलाह करें
तो बुल-हवस न कभू चश्म को सियाह करें

तुम्हें भी चाहिए है कुछ तो पास चाहत का
हम अपनी और से यूँ कब तलक निबाह करें

रखा है अपने तईं रोक रोक कर वर्ना
सियाह कर दें ज़माने को हम जो आह करें

जो उस की और को जाना मिले तो हम भी ज़ईफ़
हज़ार सज्दे हर इक गाम सरबराह करें

हवा-ए-मय-कदा ये है तो फ़ौत-ए-वक़्त है ज़ुल्म
नमाज़ छोड़ दें अब कोई दिन गुनाह करें

हमेशा कौन तकल्लुफ़ है ख़ूब-रूयों का
गुज़ार नाज़ से ईधर भी गाह गाह करें

अगर उठेंगे इसी हाल से तो कहियो तू
जो रोज़-ए-हश्र तुझी को न उज़्र-ख़्वाह करें

बुरी बला हैं सितम-कुश्ता-ए-मोहब्बत हम
जो तेग़ बरसे तो सर को न कुछ पनाह करें

अगरचे सहल हैं पर दीदनी हैं हम भी 'मीर'
उधर को यार तअम्मुल से गर निगाह करें