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क्या कहूँ कैसा सितम ग़फ़लत से मुझ पर हो गया | शाही शायरी
kya kahun kaisa sitam ghaflat se mujh par ho gaya

ग़ज़ल

क्या कहूँ कैसा सितम ग़फ़लत से मुझ पर हो गया

मीर तक़ी मीर

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क्या कहूँ कैसा सितम ग़फ़लत से मुझ पर हो गया
क़ाफ़िला जाता रहा मैं सुब्ह होते सौ गया

बे-कसी मुद्दत तलक बरसा की अपनी गोर पर
जो हमारी ख़ाक पर से हौके गुज़रा रो गया

कुछ ख़तरनाकी तरीक़-ए-इश्क़ में पिन्हाँ नहीं
खप गया वो राह-रौ इस राह हो कर जो गया

मुद्दआ' जो है सो वो पाया नहीं जाता कहीं
एक आलम जुस्तुजू में जी को अपने खो गया

'मीर' हर-यक मौज में है ज़ुल्फ़ ही का सा दिमाग़
जब से वो दरिया पे आ कर बाल अपने धो गया