क्या कहूँ कैसा सितम ग़फ़लत से मुझ पर हो गया 
क़ाफ़िला जाता रहा मैं सुब्ह होते सौ गया 
बे-कसी मुद्दत तलक बरसा की अपनी गोर पर 
जो हमारी ख़ाक पर से हौके गुज़रा रो गया 
कुछ ख़तरनाकी तरीक़-ए-इश्क़ में पिन्हाँ नहीं 
खप गया वो राह-रौ इस राह हो कर जो गया 
मुद्दआ' जो है सो वो पाया नहीं जाता कहीं 
एक आलम जुस्तुजू में जी को अपने खो गया 
'मीर' हर-यक मौज में है ज़ुल्फ़ ही का सा दिमाग़ 
जब से वो दरिया पे आ कर बाल अपने धो गया
        ग़ज़ल
क्या कहूँ कैसा सितम ग़फ़लत से मुझ पर हो गया
मीर तक़ी मीर

