उस के कूचे से जो उठ अहल-ए-वफ़ा जाते हैं
ता-नज़र काम करे रू-ब-क़फ़ा जाते हैं
मुत्तसिल रोते ही रहिए तो बुझे आतिश-ए-दिल
एक दो आँसू तो और आग लगा जाते हैं
वक़्त-ए-ख़ुश उन का जो हम-बज़्म हैं तेरे हम तो
दर-ओ-दीवार को अहवाल सुना जाते हैं
जाएगी ताक़त-ए-पा आह तू करीएगा क्या
अब तो हम हाल कभू तुम को दिखा जाते हैं
एक बीमार-ए-जुदाई हूँ मैं आफी तिस पर
पूछने वाले जुदा जान को खा जाते हैं
ग़ैर की तेग़-ए-ज़बाँ से तिरी मज्लिस में तो हम
आ के रोज़ एक नया ज़ख़्म उठा जाते हैं
अर्ज़-ए-वहशत न दिया कर तो बगूले इतनी
अपनी वादी पे कभू यार भी आ जाते हैं
'मीर' साहब भी तिरे कूचे में शब आते हैं लेक
जैसे दरयूज़ा-गरी करने गदा जाते हैं
ग़ज़ल
उस के कूचे से जो उठ अहल-ए-वफ़ा जाते हैं
मीर तक़ी मीर