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मिलते नहीं हैं जब हमें ग़म-ख़्वार एक दो | शाही शायरी
milte nahin hain jab hamein gham-KHwar ek do

ग़ज़ल

मिलते नहीं हैं जब हमें ग़म-ख़्वार एक दो

सदफ़ जाफ़री

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मिलते नहीं हैं जब हमें ग़म-ख़्वार एक दो
फिरते हैं हाथ में लिए अख़बार एक दो

शोरीदगी-ए-सर को मैं रोऊँगी ता-ब-कै
ला कर मुझे भी दे कोई दीवार एक दो

आँखों में ला के देख तबस्सुम की रौशनी
जीते हैं तेरी चश्म के बीमार एक दो

समझो है ख़ुश-नसीब वो सारे जहान में
लाए जो ढूँड कर कोई ग़म-ख़्वार एक दो

फिरते हैं मीर ख़ार कोई पूछता नहीं
ग़ालिब भी बिकते हैं सर-ए-बाज़ार एक दो

मानूस ग़म से ख़ुद को 'सदफ़' कर के जी ज़रा
हर हर क़दम पे हैं पए आज़ार एक दो