मिलो तो ऐसे अंधेरों को भी पता न लगे
चलो तो ऐसे के जिस्मों में फ़ासला न लगे
मैं आज गाँव में छोड़े तो जा रहा हूँ तुम्हें
दुआ करो कि मुझे शहर की हवा न लगे
ख़ुदा वो वक़्त न लाए हमारे बच्चों पर
कि जिस घड़ी उन्हें माओं की भी दुआ न लगे
मैं उस का ज़िक्र किसी और से नहीं करता
कहीं ये मेरा रवय्या उसे बुरा न लगे
ये तय किया है कि ऐसा फ़साना लिक्खूंगा
वो बेवफ़ा किसी जुमले से बेवफ़ा न लगे
बिठा गया था कोई ऐसे पेड़ के नीचे
कि जिस का एक भी पत्ता मुझे हरा न लगे
अता किए हैं यूँ ही उस ने रत-जगे 'इशरत'
ये ज़िंदगी मुझे ख़्वाबों का सिलसिला न लगे
ग़ज़ल
मिलो तो ऐसे अंधेरों को भी पता न लगे
इशरत किरतपुरी