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मिलने की हर आस के पीछे अन-देखी मजबूरी थी | शाही शायरी
milne ki har aas ke pichhe an-dekhi majburi thi

ग़ज़ल

मिलने की हर आस के पीछे अन-देखी मजबूरी थी

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

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मिलने की हर आस के पीछे अन-देखी मजबूरी थी
राह में दश्त नहीं पड़ता था चार घरों की दूरी थी

जज़्बों का दम घुटने लगा है लफ़्ज़ों के अम्बार तले
पहले निशाँ-ज़द कर लेना था जितनी बात ज़रूरी थी

तेरी शक्ल के एक सितारे ने पल भर सरगोशी की
शायद माह-ओ-साल-ए-वफ़ा की बस इतनी मज़दूरी थी

प्यार गया तो कैसे मिलते रंग से रंग और ख़्वाब से ख़्वाब
एक मुकम्मल घर के अंदर हर तस्वीर अधूरी थी

एक ग़ज़ाल को दूर से देखा और ग़ज़ल तय्यार हुई
सहमे सहमे से लफ़्ज़ों में हल्की सी कस्तूरी थी