मिलेगी शैख़ को जन्नत, हमें दोज़ख़ अता होगा
बस इतनी बात है जिस के लिए महशर बपा होगा
रहे दो दो फ़रिश्ते साथ अब इंसाफ़ क्या होगा
किसी ने कुछ लिखा होगा किसी ने कुछ लिखा होगा
ब-रोज़-ए-हश्र हाकिम क़ादिर-ए-मुतलक़ ख़ुदा होगा
फ़रिश्तों के लिखे और शैख़ की बातों से क्या होगा
तिरी दुनिया में सब्र ओ शुक्र से हम ने बसर कर ली
तिरी दुनिया से बढ़ कर भी तिरे दोज़ख़ में क्या होगा
सुकून-ए-मुस्तक़िल दिल बे-तमन्ना शैख़ की सोहबत
ये जन्नत है तो इस जन्नत से दोज़ख़ क्या बुरा होगा
मिरे अशआ'र पर ख़ामोश है जिज़-बिज़ नहीं होता
ये वाइज़ वाइ'ज़ों में कुछ हक़ीक़त-आश्ना होगा
भरोसा किस क़दर है तुझ को 'अख़्तर' उस की रहमत पर
अगर वो शैख़-साहिब का ख़ुदा निकला तो क्या होगा
ग़ज़ल
मिलेगी शैख़ को जन्नत, हमें दोज़ख़ अता होगा
हरी चंद अख़्तर