मिले जो उस से तो यादों के पर निकल आए
इस इक मक़ाम पे कितने सफ़र निकल आए
उजाड़ दश्त में बस जाए मेरी वीरानी
अजब नहीं कि यहीं कोई घर निकल आए
बस एक लम्हे को चमकी थी उस की तेग़-ए-नज़र
ख़ला-ए-वक़्त में क़रनों के सर निकल आए
मचान बाँधने वाले निशाना चूक गए
कि ख़ुद मचान की जानिब से डर निकल आए
शहीद-ए-कू-ए-मोहब्बत हैं काँप जाते हैं
नदीम ख़ैर से कोई अगर निकल आए
दरख़्त-ए-सब्र-बुरीदा सही पे जानते हैं
हुआ है ये भी कि उस पर समर निकल आए
अदू के हाथ भी तेग़ ओ तबर से ख़ाली हैं
अजीब क्या है जो हम बे-सिपर निकल आए
ग़म-ए-जहान ओ ग़म-ए-यार दो किनारे हैं
उधर जो डूबे वो अक्सर इधर निकल आए
यहाँ तो अहल-ए-हुनर के भी पाँव जलते हैं
ये राह-ए-शेर है 'अरशद' किधर निकल आए
ग़ज़ल
मिले जो उस से तो यादों के पर निकल आए
अरशद अब्दुल हमीद