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मिले जो नाक़ा-ए-वहशत को सारबाँ कोई | शाही शायरी
mile jo naqa-e-wahshat ko sarban koi

ग़ज़ल

मिले जो नाक़ा-ए-वहशत को सारबाँ कोई

शाहिदा हसन

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मिले जो नाक़ा-ए-वहशत को सारबाँ कोई
दिखाऊँ क़ाफ़िला-ए-ख़्वाब का निशाँ कोई

ख़मोशियों ही से मशरूत है जनम मेरा
सो मेरी राख से उठता नहीं धुआँ कोई

ख़सारा और ही होता था बे-घरी का मगर
मुझे मकान में रखता है बे-मकाँ कोई

किसी से होने न होने के दरमियाँ हो जो रब्त
वहीं तो रब्त में आता है दरमियाँ कोई

सुराग़ दे के मुझे मेरी बे-ज़बानी का
मुझी में आन बसा मुझ सा बे-ज़बाँ कोई

तू मेरे अक्स को मीज़ान-ए-आइना में न तोल
उठा रहा है अभी मेरी किर्चियाँ कोई

तिरे ख़याल की आबादियाँ छुपाती हूँ
कि मुझ से छीन न ले मेरी बस्तियाँ कोई