मिले हैं दर्द ही मुझ को मोहब्बतों के एवज़
सिले में हाथ कटे हैं मशक़्क़तों के एवज़
ख़मोश रह के भी मैं गुफ़्तुगू करूँ उन से
निगाह वो मिरी पढ़ लें समाअतों के एवज़
घरों में शम्अ की सूरत वो रौशनी कर के
पिघल रहा है हर इक पल तमाज़तों के एवज़
न पूछो बाप से अपने कभी शब-ए-हिजरत
मिलेगा क्या तुम्हें उन की वसिय्यतों के एवज़
पलट के हम ने भी इक बार फिर नहीं देखा
फ़लक जो बेच दिए हम ने कल छतों के एवज़
मैं जी भी जाऊँ तो तन्हाई मुझ को डस लेगी
चहार सम्त मुक़ातिल हैं क़ुर्बतों के एवज़
ऐ काश मेरा भी हमदर्द हो कोई 'शारिब'
मुझे रिहाई दिलाए ज़मानतों के एवज़
ग़ज़ल
मिले हैं दर्द ही मुझ को मोहब्बतों के एवज़
शारिब मौरान्वी