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मिला न खेत से उस को भी आब-ओ-दाना क्या | शाही शायरी
mila na khet se usko bhi aab-o-dana kya

ग़ज़ल

मिला न खेत से उस को भी आब-ओ-दाना क्या

सौरभ शेखर

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मिला न खेत से उस को भी आब-ओ-दाना क्या
किसान शहर को फिर इक हुआ रवाना क्या

कहाँ से लाए हो पलकों पे तुम गुहर इतने
तुम्हारे हाथ लगा है कोई ख़ज़ाना क्या

फ़ज़ा का हब्स किसी तौर अब नहीं जाता
कि तल्ख़ धूप क्या मौसम कोई सुहाना क्या

तमाम तरह के समझौते करने पड़ते हैं
मियाँ मज़ाक़ गृहस्ती को है चलाना क्या

गुनाह कुछ तो मुझे बे-तरह लुभाते हैं
ये राज़ खोल ही देता हूँ अब छुपाना क्या

हो दुश्मनी भी किसी से तो दाइमी क्यूँ हो
जो टूट जाए ज़रा में वो दोस्ताना क्या

ख़बर-नवेस नहीं हूँ मैं एक शाएर हूँ
तमाम मिसरे हैं मेरे नया पुराना क्या

न धर ले रूप कभी झोंक में तलातुम का
वो नर्म-रौ है नदी का मगर ठिकाना क्या

करो तो मुँह पे मलामत करो मिरी 'सौरभ'
ये मेरी पीठ के पीछे से फुसफुसाना क्या