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मिला कर ख़ाक में फिर ख़ाक को बर्बाद करते हैं | शाही शायरी
mila kar KHak mein phir KHak ko barbaad karte hain

ग़ज़ल

मिला कर ख़ाक में फिर ख़ाक को बर्बाद करते हैं

लाला माधव राम जौहर

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मिला कर ख़ाक में फिर ख़ाक को बर्बाद करते हैं
ग़रीबों पर सितम क्या किया सितम-ईजाद करते हैं

हज़ारों दिल जला कर ग़ैर का दिल शाद करते हैं
मिटा कर सैकड़ों शहर एक घर आबाद करते हैं

मोअज़्ज़िन को भी वो सुनते नहीं नाक़ूस तो क्या है
अबस शैख़ ओ बरहमन हर तरफ़ फ़रियाद करते हैं

हसीनों की मोहब्बत का न कर कुछ ए'तिबार ऐ दिल
ये ज़ालिम किस के होते हैं ये किस को याद करते हैं

वही शागिर्द फिर हो जाते हैं उस्ताद ऐ 'जौहर'
जो अपने जान ओ दिल से ख़िदमत-ए-उस्ताद करते हैं